Saturday, April 23, 2011
हम आज़ाद हैं
एक सड़क पर
एक बेतहाशा॔ भागता किसी चीज़ की तलाश में
एक मरा हुआ लालकिले से घोषणा करता
कि हम आज़ाद हैं
कुछ मरे हुए लोग तालियाँ पीटते
कुछ साथ मिलकर मनाते जश्न
हद तो तब
जब एक मरा हुआ संसद में पहुँचा
और एक दूसरे मरे हुए पर एक ने जूते से किया हमला
एक मरे हुए आदमी ने कई मरे हुए लोगों पर
एक कविता लिखी
और एक मरे हुए ने उसे पुरस्कार दिया
एक देश है जहाँ मरे हुए लोगों की मरे हुए लोगों पर हुकूमत
जहाँ हर रोज़ होती हज़ार से कई गुना अधिक मौतें
अरे कोई मुझे उस देश से निकालो
कोई तो मुझे मरने से बचा लो|
रचनाकार: विमलेश त्रिपा
हम मरे
हम मरे
लोग जीते गये, जीते गये, जीते गये,
कि एक दिन मर जायेंगे
हम मरते गये, मरते गये, मरते गये,
कि जियेंगे शायद कभी...
मरते हुए हर बार
अपनी बची ज़िन्दगी खत्म की हमने.
खत्म होकर नहीं
बाकी रहकर मरे हम.
आग से नहीं
धूप में जलकर मरे.
हम सपने में जी रहे थे
असल में सो रहे थे
आंख खुली तो मर गये.
हम थकने से नहीं मरे
ना ऊबने से मरे.
नहीं मरे हम प्यासे रहकर
प्यास ना होने से मरे.
हम गिरे नहीं, धसके
खुद के मलबे में दबकर मरे.
दुख नहीं मार सकता था हमें
हम ना रो पाने से मरे.
इतने घुले, इतने घुले, इतने घुले
कि घुन की तरह मरे.
जब आह नहीं निकली
तो वाह कहकर मरे.
चुटकुले थे हम...
कह देने से मर गये.
गीत थे
ना गाने से मर गये.
हम सब्र थे
टूटते तो जी जाते
ना टूटने से मर गये.
बिजली गिरने से नहीं
बिजली होने से मरे हम.
ज़हर से नहीं
ज़हरीले होने से मरे.
हम क़त्ल होने से नहीं
खुद का क़त्ल करने से मरे.
हम इतने थे परेशान
नहीं मर सकते थे और परेशानी से
राहत मिलने से मरे हम.
ऐसे हुये, ऐसे हुये
कि होते-होते मर गये.
हम मन्दिर थे
बुत होने से मरे.
भरी दोपहरी में मरे जब
उस वक़्त रात थी
हम चाँद को नहीं
चाँद के गड्ढे देखते हुये मरे.
कील की तरह
खुद में गड़कर मरे हम.
अरे.. मरने से नहीं
ना जीने से मरे.
सड़े चूहे जैसी
दुर्गन्ध आती थी ज़िन्दगी से..
हम दम घुटने से नहीं
साँस ना लेने की इच्छा से मरे.
अपने आंसुओं को रोते हुये मरे,
मौत पर हंसते हुये मरे.
तारीख देखकर नहीं
तारीख बनकर मरे हम.
हाँ,
हम मरे